अथ कंडोलब्राह्मणोत्पत्तिप्रकरणम् ( १३ )

ततो विलोक्य कण्वस्तां पूर्ण सर्वसमृद्धिभिः। सोऽस्मरत्का मधेनुं वै सर्वकामसमृद्धये ॥ ११२ ॥

ततो देवानृषीन्सर्वान्स माहूय मुनीश्वरः। शांत्यर्थ यज्ञमकरोद्यस्मिन्सवें विसिस्मिरे ।। ११३ ।।

समप्यम चाध्वरं कण्वो विप्रानाहूय तानथ। एकैकं प्रतिगोत्र सोष्टादशैवाचयन्मुनिः ॥ ११४ ॥

ब्रह्मार्पणेकबुध्या स तेभ्यः स्थानमदान्सुदा ॥ त्रिंशत्सहस्र संख्यैश्च वणिग्भिः परिपूरितम् ॥ ११५ ।।

अष्टादशसहस्रेभ्योब्राह्मणेभ्योऽतिशोभिम्। एतद्भक्त्यामयादत्तभवद्भ्योऽथप्रगृह्यताम् ॥ ३१६॥

स्वस्तीत्युक्त्वा च तैविप्रेराशी भिरभिनंदितः। पुनः प्रोवाच तान् वित्रान्स महर्षिर्मुदान्वितः ॥ ११७॥

षट् त्रिंशच सहस्राणि वणिजो विनयान्विताः। वाञ्छितार्थप्रदा नैव भविष्यति द्विजोत्तमाः ॥११८ ॥

गुरौतेभ्योविनिस्तीणेंतत्स्थानंगालवोमुनिः। भक्त्यर्थंवणिजःशेषात्तद्विजेभ्यःप्रदत्तवान्।। ११ ९ ।।

स्थाने तेभ्यो दीयमाने पश्यत्सु त्रिदशेषु च। महर्षिषु च सर्वेषु पकुलाकोंग्णवीदिदम्।। ।। १२० ॥

पीछे कण्वऋषिने उक्त नगरी समृद्धिं युक्त देखके सब कामना सिद्ध होनेके वास्ते कामधेनुका स्मरण किया॥ ११२ ।।

और सव देवऋषि लोको को बुला के शांति के अर्थ यज्ञ किया जिस यज्ञमें सव आश्चर्य पाये ॥ ११३ ॥

फिर वाजपेय यज्ञ समाप्त करके और ब्राह्मणों को बुलाके प्रत्येक अठारह गोत्रोंका नाम लेके ॥११४।।

ब्रह्मार्पण, यज्ञ समाप्त करके तीन हजार बनियोकरके परिपूरित उस स्थानको अठारह हजार ब्राह्मणों को दान देते गए,।।११५।।

यह दान मैंने परम भक्तिसे तुमको दिया है सो ग्रहण करो ॥ ११६ ॥

तब ब्राह्मणोंने स्वस्ति कहके स्थान लिया और आशीर्वाद दिया फिर कहते हैं ।।११७।।

हे ब्राह्मणों ! यह छत्तीस हजार बनिये तुमकू वांछितार्थ फल देनेवाले होंगे ॥ ११८॥

गुरुने (कण्व मुनि) दान देने के बाद गालव ऋषिने उन ब्राह्मणो को अपनी भक्ति से, शेष बनिये छः हजार ब्राह्मणों की सेवाके निमित्त दिये ॥ ११९ ॥

इस रीतिस स्थानका दान दिया सव देवता देख सब ऋषि देखरहे हैं उस बखत (सूर्य) बकुलार्क प्रसन्न हो कर कहने लगे ॥ १२० ॥

क्रमश: ( संकलन - हर्ष अध्वर्यु )