कानपर_यज्ञोपवीत_रखनेका_रहस्य

यज्ञोपवीत को शौचादिके समय कानपर रखने में कारण यह हैं-- (#ऊर्ध्वं_नाभेर्मेध्यतरः_पुरुषः_परिकीर्तितः||मनु १/९२||) 'पुरुष' नाभिसे ऊपर पवित्र हैं,नाभि के नीचे अपवित्र हैं | इस प्रमाण से नाभि का निचला भाग मल-मूत्रधारक होने से विशेषतः शौच के समय अपवित्र होता हैं | इसलिये उस समय पवित्र यज्ञोपवीत को वहाँ न रखकर -> (तस्मान्मेध्यतमं_त्वस्य_मुखमुक्तं_स्वयम्भुवा ||१/९२||) इस प्रमाण से अत्यन्त पवित्र तथा ज्ञान का भण्डार होने से बोधायन के अनुसार सिरपर अथवा अन्य महर्षियों के अनुसार सीरके भाग कानपर रखा जाता हैं | दाहिने कान की पवित्रता उसमें (ब्रह्मोपदेश)दीक्षा के समय आचार्यद्वारा गुप्त मन्त्रोपदेश होने से तथा - (मरुतः_सोम_इन्द्राग्नी_मित्रावरुणौ_तथैव_च | एते_सर्वे_च_विप्रस्य_श्रोत्रे_तिष्ठन्ति_दक्षीणे ||गोभिल गृ०संग्र० २/९०||)

"वायु, चन्द्रमा, इन्द्र, अग्नि, मित्र, तथा वरुण" -- ये सब देवता ब्राह्मण के दाहिने कानमें रहतें हैं | इत्यादि प्रमाणों से देव- निवास के कारण सूचित होती हैं |

(क्षुते_निष्ठीवने_चैव_दन्तोच्छिष्टे_तथानृते | पतितानां_च_सम्भाषे_दक्षिणं_श्रवणं_स्पृशेत् ||गृह्य सं० २/८९||) "छींकने, थूकने, दाँतके जूँठे होने, मुँह से झूठी बात निकलने तथा पतितों से बातचीत करनेपर अपने दाहिने कान का स्पर्श करना चाहिये |

इसी कारण अपराधी लोग भी अपनी शुद्धि के लिये दाहिने कान को पकड़ते या छूतें हैं | अन्य बात यह हैं कि हमारे शरीर में "पार्थिव इन्द्रिय- नासिका, जलीय इन्द्रिय- जिह्वा, तैजस इन्द्रिय - आँख, वायव्य इन्द्रिय- त्वचा, तथा आकाशीय इन्द्रिय - कान हैं |

देश काल अनुसार श्मशानादि रूप में पृथिवी, मद्यादि योगसे गङ्गाजलादि रूप में जल, श्मशानाग्निरूप में तेज, पुरीषालयादिरूप में वायु ये चार भूत अशुद्ध हो जातें हैं; पर आकाश किसी भी दशा में अपवित्र नहीं होता |

हमारे शरीर में उसकी प्रतिनिधिभूत इन्द्रिय कान हैं | उससे शौचादि समय यज्ञोपवीत का सम्बन्ध कर देने से वह अशुद्ध नहीं होता | वैज्ञानिकशोधानुसार भी यह उचित है। वैज्ञानिकतर्कान्तर्गत कर्ण में कुछ ऐसी नाडियाँ होतीं हैं जिनपर दबाव से मलमुत्र पूर्णरूपेण बिना किसी व्याधा के बाहर हो जाते हैं। अतः कर्ण पर ब्रह्मसूत्र बाँधना वैज्ञानिकों को भी मान्य है। अतः यह न केवल आध्यात्मिक बल्कि वैज्ञानिक विषय भी है।

यही यज्ञोपवीत सम्बन्धी वैज्ञानिक रहस्य जान लेने चाहिये |

ॐस्वस्ति|| पु ह शास्त्री.उमरेठ|| शेष पुनः

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