संध्या तत्त्व विमर्श भाग-१

  1. १_संध्यापरिचय
  2. २_संध्योपासनाका_अर्थ
  3. ३_संध्या_करनेसे_लाभ
  4. ४_संध्या_न_करनेसे_हानि
  1. #१_सन्ध्यापरिचय
  2. ॐकारप्रौढमूलः क्रमपदसहितश्छन्दविस्तीर्णशाख ऋक्पत्रः सामपुष्पो यजुरधिकफलोऽथर्वगन्धं दधानः। यज्ञच्छायासमेतो द्विजमधुपगणैः सेव्यमानः प्रभाते मध्ये सायं त्रिकालं सुचरितचरितः पातु वो वेदवृक्षः॥

    परमात्माको प्राप्त किये अथवा जाने बिना जीवनकी भवबन्धनसे मुक्ति नहीं हो सकती। यह सभी ऋषि-महर्षियोंका निश्चित मत है। उनके ज्ञानका सबसे सहज, उत्तम और प्रारम्भिक साधन है— संध्योपासना। संध्योपासना द्विजमात्रके लिये परम आवश्यक कर्म है। इसकी अवहेलनासे पाप होता है और पालनसे अन्तःकरण शुद्ध होकर परमात्मसाक्षात्कारका अधिकारी बन जाता है। तन-मनसे संध्योपासनाका आश्रय लेनेवाले द्विजको स्वल्पकालमें ही परमेश्वरकी प्राप्ति हो जाती है। अतः द्विजातिमात्रको संध्योपासनामें कभी प्रमाद नहीं करना चाहिये।

  3. संध्योपासनाका_अर्थ
  4. संध्योपासनामें दो शब्द हैं—संध्या और उपासना। संध्याका प्रायः तीन अर्थोंमें व्यवहार होता है—१-संध्याकाल, २- संध्याकर्म और ३-सूर्यस्वरूप ब्रह्म (परमात्मा)। तीनों ही अर्थोके समर्थक शास्त्रीय वचन उपलब्ध होते हैं-

    अहोरात्रस्य यः संधिः सूर्यनक्षत्रवर्जितः।

    सा तु संध्या समाख्याता मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः॥ (दक्षस्मृति)

    सूर्य और नक्षत्रोंसे रहित जो दिन-रातकी संधिका समय है, उसे तत्त्वदर्शी मुनियोंने 'संध्या' कहा है। -इस वचनमें संध्या शब्दका काल अर्थमें व्यवहार हुआ है।

    संधौ संध्यामुपासीत नोदिते नास्तगे रवौ। (वृद्ध याज्ञवल्क्य)

    सूर्योदय और सूर्यास्तके कुछ पहले संधिवेलामें संध्योपासना करनी चाहिये।

    'अहरहः संध्यामुपासीत'।

    (तैत्तिरीय०)

    'प्रतिदिन संध्या करे।'

    तस्माद् ब्राह्मणोऽहोरात्रस्य संयोगे संध्यामुपासते॥

    (छब्बीसवाँ ब्राह्मण, प्रण० ४, खं० ५)

    इसलिये ब्राह्मणोंको दिन-रातकी संधिके समय संध्योपासना करनी चाहिये।

    -इत्यादि वचनोंमें संध्याके समय किये जानेवाले परमेश्वरके ध्यानरूप प्राणायामादि कर्मोंको ही 'संध्या' बताया गया है। काल- वाचक अर्थमें 'संध्योपासना' शब्दका अभिप्राय है— संध्याकालमें की जानेवाली उपासना। दूसरे (कर्मवाचक) अर्थमें प्राणायामादि कर्मोंका अनुष्ठान ही संध्योपासना है।

    'संध्येति सूर्यगं ब्रह्म' (व्यासस्मृति)—इत्यादि वचनोंके अनुसार आदित्यमण्डलगत ब्रह्म ही संध्या शब्दसे कहा गया है। इस तृतीय अर्थमें सूर्यस्वरूप ब्रह्म (परमात्मा)-की उपासना ही संध्योपासना है।

    यद्यपि आचमनसे लेकर गायत्रीजपपर्यन्त सभी कर्म संध्योपासना ही हैं तथापि ध्यानपूर्वक गायत्रीजप संध्योपासनामें एक विशेष स्थान रखता है। क्योंकि-

    पूर्वां संध्यां सनक्षत्रामुपक्रम्य यथाविधि।

    गायत्रीमभ्यसेत्तावद् यावदादित्यदर्शनम्॥

    सबेरे जब कि तारे दिखायी देते हों विधिपूर्वक प्रातःसंध्या आरम्भ करके सूर्यके दर्शन होनेतक गायत्रीजप करता रहे। इस नरसिंहपुराणके वचनमें गायत्रीजपको ही प्रधानता दी गयी है।

    ऋषयो दीर्घसंध्यत्वाद्दीर्घमायुरवाप्नुयुः।

    ऋषिलोगोंने दीर्घकालतक संध्या करनेके कारण ही दीर्घ आयु प्राप्त की थी। इत्यादि मनुवाक्यमें भी 'दीर्घसंध्य' शब्दसे दीर्घकालतक ध्यानसहित गायत्रीजप करनेकी ओर ही संकेत किया गया है, क्योंकि गायत्रीजप हजारोंकी संख्यामें होनेसे उसमें दीर्घकालतक प्रवृत्त रहना सम्भव है।

    संध्योपासना नित्य और प्रायश्चित्त कर्म भी है

    -यह संध्योपासना नित्य और प्रायश्चित्त कर्म भी है।

    'अहरहः संध्यामुपासीत' (प्रतिदिन संध्योपासना करें) इस प्रकार प्रतिदिन संध्या करनेकी विधि होनेसे तथा-

    एतत् संध्यात्रयं प्रोक्तं ब्राह्मण्यं यदधिष्ठितम्।

    यस्य नास्त्यादरस्तत्र न स ब्राह्मण उच्यते॥ .(छान्दोग्यपरिशिष्ट)

    यह त्रिकालसंध्याकर्मका वर्णन किया गया; जिसके आधारपर ब्राह्मणत्व सुप्रतिष्ठित होता है। इसमें जिसका आदर नहीं है जो प्रतिदिन संध्या नहीं करता, वह जन्मसे ब्राह्मण होनेपर भी कर्मभ्रष्ट होनेके कारण ब्राह्मण नहीं कहा जा सकता। -इस वचनके अनुसार संध्या न करनेसे दोषका श्रवण होनेके कारण संध्या नित्यकर्म है। तथा-

    दिवा वा यदि वा रात्रौ यदज्ञानकृतं भवेत्।

    त्रिकालसंध्याकरणात् तत्सर्वं च प्रणश्यति॥ (याज्ञवल्क्यस्मृति)

    अर्थात् 'दिन या रातमें अनजानसे जो पाप बन जाता है, वह सब-का-सब तीनों कालोंकी संध्या करनेसे नष्ट हो जाता है।' -इस वचनके अनुसार पापध्वंसकी साधिका होनेसे संध्याप्रायश्चित्त कर्म भी है। द्विजमात्रको यथासम्भव प्रातः, सायं और मध्याह्न तीनों कालोंकी संध्याका पालन करना चाहिये। कुछ लोगोंका विचार है कि-

    नानुतिष्ठति यः पूर्वां नोपास्ते यश्च पश्चिमाम्।

    स शूद्रवद् बहिष्कार्यः सर्वस्माद् द्विजकर्मणः॥ (मनु०)

    जो प्रातः और सायं-संध्याका अनुष्ठान नहीं करता, वह सभी द्विजोचित कर्मोंसे बहिष्कृत कर देनेयोग्य है।

    -इस वचनमें प्रातः और सायं—इन्हीं दो संध्याओंके न करनेसे दोष बताया गया है, अतः प्रातः तथा सायंकालकी संध्या ही आवश्यक है, मध्याह्नकी नहीं। किंतु ऐसा मानना उचित नहीं है, कारण कि इस वचनद्वारा मनुजीने जो उक्त दो कालोंकी संध्या न करनेसे दोष बताया है, उससे उक्त समयकी संध्याकी अवश्यकर्तव्यतामात्र सिद्ध हुई। इससे यह नहीं व्यक्त होता कि मध्याह्म-संध्या अनावश्यक है, क्योंकि-

    संध्यात्रयं तु कर्तव्यं द्विजेनात्मविदा सदा। (अत्रिस्मृति)

    आत्मवेत्ता द्विजको सदा त्रिकाल-संध्या करनी चाहिये। —इत्यादि वचनके अनुसार मध्याह्न-संध्या भी आवश्यक ही है।

    शुक्लयजुर्वेदियोंके लिये तो मध्याह्न-संध्या विशेष आवश्यक है। आजकल बाजारोंमें 'क्षत्रिय-संध्या' और 'वैश्य- संध्या' के नामसे भी पुस्तकें बिकने लगी हैं, इससे लोगोंमें बड़ा भ्रम फैल रहा है। वैश्य और क्षत्रियोंके लिये कोई अलग संध्या नहीं है। एक ही प्रकारकी संध्या द्विजमात्रके उपयोगके लिये होती है।
  5. ३_संध्या_करनेसे_लाभ
  6. जो लोग दृढ़प्रतिज्ञ होकर प्रतिदिन नियतरूपसे संध्या करते हैं, वे पापरहित होकर अनामय ब्रह्मपदको प्राप्त होते है । सायं- संध्यासे दिनके पाप नष्ट होते हैं और प्रातः-संध्यासे रात्रिके। जो अन्य किसी कर्मका अनुष्ठान न करके केवल संध्याकर्मका अनुष्ठान करता रहता है, वह पुण्यका भागी होता है। परन्तु अन्य सत्कर्मोंका अनुष्ठान करनेपर भी संध्या न करनेसे पापका भागी होना पड़ता है। जो प्रतिदिन स्नान किया करता है तथा कभी संध्याकर्मका लोप नहीं करता, उसको बाह्य और आन्तरिक दोनों ही प्रकारके दोष नहीं प्राप्त होते, जैसे गरुड़के पास सर्प नहीं जा सकते।

    १-संध्यामुपासते ये तु नियतं संशितव्रताः।

    विधूतपापास्ते यान्ति ब्रह्मलोकमनामयम्॥ (यमस्मृति)

    २-पूर्वां संध्यां जपंस्तिष्ठन् नैशमेनो व्यपोहति।

    पश्चिमां तु समासीनो मलं हन्ति दिवाकृतम्॥ (मनु०)

    ३-यस्तु तां केवलां संध्यामुपासीत स पुण्यभाक्।

    तां परित्यज्य कर्माणि कुर्वन् प्राप्नोति किल्बिषम्॥ (याज्ञवल्क्य)

    ४-संध्यालोपस्य चाकर्ता स्नानशीलश्च यः सदा।

    तं दोषा नोपसर्पन्ति गरुत्मन्तमिवोरगाः॥ (कात्यायन)

  7. _संध्या_न_करनेसे_हानि
  8. जो संध्या नहीं जानता अथवा जानकर भी उसकी उपासना नहीं करता, वह जीते-जी शूद्रके समान है और मरनेपर कुत्तेकी योनिको प्राप्त होता है। जो विप्र संकट प्राप्त हुए बिना ही संध्याका त्याग करता है, वह शूद्रके समान है। उसे प्रायश्चित्तका भागी और लोकमें निन्दित होना पड़ता है।

    ५-संध्या येन न विज्ञाता संध्या नैवाप्युपासिता।

    जीवमानो भवेच्छूद्रो मृतः श्वा चैव जायते॥ (याज्ञवल्क्य)

    ६-अनार्तश्चोत्सृजेद् यस्तु स विप्रः शूद्रसम्मितः।

    प्रायश्चित्ती भवेच्चैव लोके भवति निन्दितः॥ (याज्ञवल्क्य)

    संध्याहीन द्विज अपवित्र होता है। उसका किसी भी द्विजकर्ममें अधिकार नहीं है। वह जो कुछ भी दूसरा कर्म करता है, उसका फल भी उसे नहीं मिलता। जो द्विज समयपर प्राप्त हुए संध्याकर्मका आलस्यवश उल्लंघन करता है, उसे सूर्यकी हिंसाका पाप लगता है और मृत्युके पश्चात् वह उल्लू होता है।

    १-संध्याहीनोऽशुचिर्नित्यमनर्हः सर्वकर्मसु।

    यदन्यत् कुरुते कर्म न तस्य फलभाग् भवेत् ॥ (दक्षस्मृति)

    २-यः संध्यां कालतः प्राप्तामालस्यादतिवर्तते।

    सूर्यहत्यामवाप्नोति ह्युलूकत्वमियात् स च॥ (अत्रि)

    संध्याकर्मका कभी उल्लंघन नहीं करना चाहिये। जो संध्योपासना नहीं करता उसे सुर्यकी हत्याका दोष लगता है।

    तस्मान्नोल्लंघन कार्यं संध्योपासनाकर्मणः। २/८/५७

    स हन्ति सूर्यं संध्याया नोपस्तिं कुस्ते तुयः॥ (विष्णुपुराण