आ ब्रह्मन् ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायताम् आ राष्ट्रे राजन्यः शूर ऽ इषव्यो ऽतिव्याधी महारथो जायतां दोग्ध्री धेनुर् वोढानड्वान् आशुः सप्तिः पुरंधिर् योषा जिष्णू रथेष्ठाः सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायतां निकामे-निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो न ऽ ओषधयः पच्यन्तां योगक्षेमो नः कल्पताम् ॥ ( यजुर्वेद २२/२२)

अर्थ :~~ हमारे राष्ट्र में ब्रह्मवर्चसी ब्राह्मण उत्पन्न हों । हमारे राष्ट्र में शूर, बाणवेधन में कुशल, महारथी क्षत्रिय उत्पन्न हों । यजमान की गायें दूध देने वाली हों, बैल भार ढोने में सक्षम हों, घोड़े शीघ्रगामी हों । स्त्रियाँ सुशील और सर्वगुण सम्पन्न हों । रथवाले, जयशील, पराक्रमी और यजमान पुत्र हों । हमारे राष्ट्र में आवश्यकतानुसार समय-समय पर मेघ वर्षा करें । फ़सलें और औषधियाँ फल-फूल से लदी होकर परिपक्वता प्राप्त करें । और हमारा योगक्षेम उत्तम रीति से होता रहे ।

व्याख्या :== यहाँ ब्राह्मण के लिए ब्रह्मवर्चसी एवं राजाओं के लिए शुरत्व आदि की प्रार्थना आयी है । यदि वेदों में वर्णव्यवस्था कथित गुण कर्मानुरूप होती तो ब्राह्मण के लिए ब्रह्मवर्चसी की प्राथना उसमें नहीं होती तब वेद में ब्रह्मवर्चस युक्त को ही नाम ब्राह्मण होता एव ब्राह्मण के लिए ब्रह्मवर्चसी प्रार्थना एवं आशिर्वाद ही व्यर्थ होता।

यह प्रार्थना ही यहाँ जन्मना वर्ण व्यवस्था कि सिद्धि करता है, ब्राह्मोऽजातौ( अष्टा० ६।४।१७१) इस पाणिनि सूत्र से अपत्य एवं जाती में ब्राह्मण शब्द होता है अब अर्थ हुआ कि हे ! ब्रह्मन् ब्राह्मण ब्रह्मवर्चसी होवें अथवा ब्रह्मन्–ब्राह्मण में (सप्तम्या लुक्) ब्रह्मवर्चसी ब्राह्मण उत्तपन्न होवें।

इसी प्रकार शूरतादि गुण बाले जिस किसीके ( गुणकर्मानुरूप वर्णव्यवस्था मानने बालों के मतानुरूप ) क्षत्रिय होने पर वेद में ( राजन्यः शूरो जायताम ) यह श्रुती व्यर्थ होगी , क्योंकि जो कोई भी शूरता आदि गुणों से युक्त होगा वही क्षत्रिय हुआ कर्मणा वर्ण मानने बालों में फ़िर उसके लिए #शुर हो यह प्रार्थना कैसी ? इससे सिद्ध है कि वेद ब्राह्मण, क्षत्रिय जन से मानता है ना की तथाकथित कर्म से ।

इसलिए महाभाष्य में राज्ञोऽपत्ये जातिग्रहणं कर्तव्यम्। राजन्यो नाम जातिः। ( ४/१/१३७) यहाँ पर राजा शब्द का पर्याय है एव मीमांसाशबर भाष्य ( २/३/३) क्षत्रियस्य राजसूयविधानात्। राजा राजसूयेन येजेतेति। ननूक्तं- यौगिको राजशब्द इति। एतदप्ययुक्तम्। यतो जातिवचन इति क्षत्रिये तु प्रत्यक्षं प्रयुञ्जानात् उपलभामहे .....तस्माज्जातिनिमित्तो राजशब्दः। अतः उक्त मन्त्र में राजन्य शब्द होने से जन्म से वर्ण इष्ट अन्यथा शुर के शुर होने की प्रार्थना व्यर्थ है।

उक्त मन्त्र संहिता पर ही ब्राह्मण कहता है

१) आ ब्रह्मन् ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायतामिति ब्राह्मण एव ब्रह्मवर्चसं दधाति तस्मात्पुरा ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जज्ञे - १३.१.९.[१] , तद्ध्येव ब्राह्मणेनैष्टव्यं यद् ब्रह्मवर्चसी स्यादिति॥ १।९॥३॥१६

२)आ राष्ट्रे राजन्यः शूर इषव्योऽतिव्याधी महारथो जायतामिति राजन्य एव शौर्यम् महिमानं दधाति तस्मात्पुरा राजन्यः शूर इषव्योऽतिव्याधी महारथो जज्ञे - १३.१.९.[२] तस्मात्पुरा धेनुर्दोग्ध्री जज्ञे - १३.१.९. ३ तस्मात्पुरानड्वान्वोढा जज्ञे - १३.१.९.[४] इत्यादि ।

यहाँ पर ब्राह्मण का ब्रह्मवर्चवाला होना क्षत्रिय के शुर आदि होना है , ब्रह्मवर्चवाले का ब्राह्मण होना शुर का क्षत्रिय होना नहीं कहा अतः यह सूक्ष्म विचार कर लेना चाहिए ।

उक्त मन्त्र में #ब्राह्मण का #ब्रह्मवर्चसी और #क्षत्रिय का #शूर होना आदि विधेय विशेषण है ... इसलिये उन्हें विशेष्य से पिछे ढाला गया है ; नहीं तो #अविमृष्टविधेयांशदोष हो जाता । इस से स्प्ष्ट है ही वेद में वर्णव्यवस्था जन्म से है ना की स्वकल्पित कर्मानुरूप । यदि उक्त मन्त्र में 'हे परमात्मन् हमारे राष्ट्र में ब्रह्मवर्चस वाला ब्राह्मण हो और शूर क्षत्रिय हो' यह प्रार्थना मानी जावे , तथापि यदि जन्मना वर्णव्यवस्था न मानी जावे तो उनके ये विशेषण व्यर्थ हो जाएंगे।

यदि उक्त मन्त्र में ब्रह्मवर्चस बॉला ब्राह्मण होता है ; और शूर ही क्षत्रिय होता है यह विपरित अर्थ किया जावे तो यह ठिक नहीं है । पहले तो यह अर्थ यहां हो ही नहीं सकता क्योंकि ऐसा शब्द ही नहीं है , यदि विलष्ट कल्पना से यहाँ वो अर्थ मान भी लिया जाए तो #दोग्ध्री_धेनु , #वोढानड्वान्_आशुः #सप्तिः ..... यहाँ पर भी वही दोष प्राप्त होगा । तब तो दोग्ध्री दूध देने बॉला धेनु कहा जायेगा एवं बकरी , भैंस , कुतिया आदि भी #धेनु कहलाने लगेगी। #वोढा ( भार ढोने बॉला) कुली , मजदूर आदि #अनड्वान् #बैल हो जाएंगे । शीघ्र चलने बाले रथ , गाड़ी आदि #सप्तिः( घोड़ा ) हो जायेंगे जो कदापि युक्ति युक्त नहीं है ।

अतः उपरोक्त इस लेख से हमें यह ही कहना है की उक्त मन्त्र से वेद स्वयं ही जन्मना वर्णव्यवस्था की सिद्धि एवं तथा कथित कर्मणा का रट लगाने बालों का खण्ड़न कर रहें हैं ।

इसलिए समाजिकों जादा वेद के नाम पर बंद कूद न मचाया करो नहीं औंधे मुँह ऐसा गिरोगे की बत्तीसी सीधे पेट में चल जायेग की समझे

।। जय श्री राम ।।