समूहयज्ञोपवीतकी धज्जियाँ

यज्ञोपवीत-संस्कार कोई पूजा-पाठ का सामान्य विषय नहीं हैं,अपितु जैसे मंत्र-शास्त्रमें सद्गुरु द्वारा पात्रवान् शिष्य को दिक्षा देना ---- ठिक वैसे ही यह वैदिक ब्रह्मसायुज्यमयी-दिक्षा ही हैं, दिक्षा देने वाले गुरु या आचार्य की भी पात्रता का विचार तंत्र में और वेैदिक-शास्त्रो में भी हैं | जैसे कि जनेऊ-संस्कार करवाने वाला आचार्य स्वयं स्व-शाखा के नित्यकर्म संध्यावंदन आदि से प्रवृत्त हो, लहसुन,प्याज,सलगम,गाजर,सिंगाडे आदि अभक्ष्य पदार्थ खाने वाला न हो, वेद का स्वाध्यायी हो तथा शास्त्र में निपुण हो आदि.....

आज वर्तमान में बहुत सारे ब्रह्म-समाज़ समूह-यज्ञोपवीत-संस्कार के आयोजन करकें समाज़-सेवा करने का बीरुद प्राप्त करने में जुट़े हुए हैं | यह आयोजक शास्त्र को तो जानते नहीं और यजमान की वेद-शाखा परंपरा को छिन्न करने पर तुले हुए हैं | समूह में सभी बटुक समांतर वय के नहीं होते | तथा ब्राह्मण बटुक का आठ वर्ष में ही जनेऊ होना चाहिए यह मूल विधान हैं, आठ वर्ष निकल जाने के बाद बटुक को प्रतिवर्ष एक एक वृद्धि क्रम से कृच्छ्रप्रायश्चित्त लगता हैं | और कोई कोई बटुक के तो विवाह योग्य होने पर भी जनेऊ संस्कार न हुआ हो ऐसे भी कुमारों को इसी समूह आयोजन में सम्मिलित करतें हैं - परंतु ब्राह्मण बटुक के सोलह वर्ष की वय तक भी जिनका जनेऊ न हुआ हो उनको पतितसावित्रीकदोष लगता हैं - इन्हों का प्रायश्चित्त भी बढती वय के अनुसार भिन्न भिन्न हैं ||

समूहयज्ञोपवीत में आयोजक तथा दक्षिणाकेलोभी आचार्य सभी बटुकों के वर्णेश शाखेश तथा गुरु के बलाबल का भी विचार नहीं करतें होने से मुर्हूत भी जूठा़ निकालतें हैं | क्या सभी बटुकों के ग्रहबल एक ही दिन में यथोचित श्रेष्ठ हो सकतें हैं ? नहीं |

ऐसे समूह_यज्ञोपवीत में प्रति-बटुक के कर्माचार्यों भी अपनी शाखा के संध्यादि नित्य-कर्म रहित होतें हैं-- जिनको वेद का पहला मंत्र का प्रारंभ कैसे किया जाता हैं वह भी पता नहीं होता तो ऐसे सिर्फ और सिर्फ सिर गिनाने के लिए प्रत्येक बटुक का कर्माचार्य बनाना कैसे संभव हैं ? अतः नहीं हो सकता |

शास्त्र_नियमसे- कोई एक पिता के दो लड़कों का भी यज्ञोपवीत साथ में एक ही मंडप में नहीं हो सकता हैं |

ऐसे कम नसीब से सभी संस्कारों के अग्निस्थापन की भिन्न भिन्न कुशकंडिका विधान कैसे संभव हैं ? यह भी नहीं हो सकती |

तथा प्रत्येक यजमान के स्वगृह्यसूत्र विधान से अपनी वेद_शाखा के अनुसार भी कर्म समूह में संभव नहीं हैं |||

यह शास्त्रीयसमीक्षा लोभी पंडितो के समज़ में नहीं आ सकती | और ज्ञानी पंडित को समज़ में आए तो समूहयज्ञोपवीतसंस्कारआयोजनों का समर्थन न करनें दैं----

ब्रह्मचर्याश्रम( गायत्रीउपदेश)का महत्व पूर्ण उपनयनसंस्कार के ( समूहयज्ञोपवीत)संस्कार की मान्यता देकर ही पाखंड किये जा रहैं है....आयोजको की मीथ्या प्रतिष्ठा बढ़ाने सेे क्या फायदा? जहाँ यजमान और संस्कार्य व्यक्तियोंके गृह्यस्थ वैदिक विधान यथोचित न हो सके..? समूह संस्कारों में मुख्य संस्काराङ्गहोम की कुशकण्डिका तथा आचार्यत्वप्रधान कर्म भी ऐसे संध्यादि नित्यकर्म रहित पतितों का उपाचार्य या कर्माचार्य से कैसे विधिवत् संभव है? अतः संभव ही नहीं हो सकता...कहीं न कहीं संस्कारों में वैकल्यता रहती है..ऐसे में पहला दोषी कर्मकरानेवाले,नेतृत्ववालें दक्षिणाकेलोभीआचार्य,दूसरा आयोजक और तीसरा यजमान सम्पूर्ण दोषी है..

सभी सनातनधर्म वालों को याद रहैं कि षोडश_संस्कार ! स्वकीय अनुष्ठान हैं यदि सम्पति की मर्यादा हो तो महेमानों को इकठ्ठे करने की कोई आवश्यकता नहीं मुख्य विधान संस्कार की विधिवत् प्राप्ति है..

इति सत्यम् यही सत्य हैं | एष_धर्मः - यही धर्म हैं |

आयोजकों को ऐसा कुछ करना चाहिये कि "लक्ष्यसाधन मांगलिक कार्यों" में शास्त्र की मर्यादा भंग न हो परंतु यथेष्ट पालन हो,आयोजकों यदि समाजोपयोगी कार्य करना चाहता हैं,तो जरुरी हैं कि आर्थिक समस्या वालें ब्राह्मणों के ऐसे " जनेऊ" और " विवाह" के प्रसंग आदि में किसी भी तरह ध्यान में रखकर प्रसंगसे पहले ही उनके घर जाकर उनको आर्थिक मदद करें जिससे वें अपना स्वगृह्य शास्त्रीय "विवाह- जनेऊ" अपने घर ही कर सकें....और कोई शास्त्रीयमर्यादाओंकाभंगन_हो | जो आचार्यों ऐसे समूह आयोजनोंका समर्थन करतें हैं उनको तो यह वाणी प्रत्याघात जरुर लगेगीं परंतु सत्यको स्विकार करैं वही पण्डित हैं |

लोग अर्थ अभाव के कारण समूह-आयोजन में जुड़ते हैं ऐसा नहीं लोकलज्जा से जुड़ते हैं- वरन जनेऊ - विवाह में महेमानों की आवश्यकता नहीं- सिर्फ शास्त्र सम्मत विधान की पूर्ति ही अनिवार्य हैं---

फिर भी आयोजकों को ऐसा लगता हैं कि अार्थिक क्षमता नहीं हैं तो - प्रतिवार्षिक या षड्मासिक सभा का आयोजन करैं-- उस समय समाज़ में कितने आर्थिक-स्थिति मंद वालें हैं, कि जिसके घर जनेऊ या विवाह करना हो; वह नोट़ करैं- बाद में दातार बना लो | जिस परिस्थिति-मंद व्यक्ति के घर प्रसंग आयें वहाँ प्रसंग से पहले ही जाकर ही मदद क्यूँ न हो?

क्यों हमारे वैदिक-परम्परा का विच्छेद हो ?

लोकाचाररुढीवादऔररीवाजकबतक शास्त्रसम्मत_है?---->

पूर्वमीमांसा में सर्वप्रथम प्रमाणों की ही विशद चर्चा हुई है । इसलिए उस अध्याय का नाम ही “प्रमाणाध्याय “रख दिया गया है । इसमें शिष्टाचार को प्रमाण माना गया है । शिष्ट का लक्षण वहांनिरूपित है ।

"वेदः स्मृतिः सदाचारः ” –मनुस्मृति,2/12, तथा “श्रुतिःस्मृतिः सदाचारः “–याज्ञवल्क्य स्मृति-आचाराध्याय,7, इन दोनों में सदाचार को धर्म में प्रमाण माना है । किन्तु धर्म में परम प्रमाण भगवान् वेद ही हैं । उनसे विरुद्ध समृति या सदाचार प्रमाण नही हैं । पूर्वमीमांसा में वेदैकप्रमाणगम्य धर्म को बतलाया गया –जैमिनिसूत्र-1/1/2/2, पुनः ” स्मृत्यधिकरण “-1/3/1/2, से वेदमूलक स्मृतियों को धर्म में प्रमाण माना गया । यदि कोई स्मृति वेद से विरुद्ध है तो वह धर्म में प्रमाण नही हो सकती –यह सिद्धान्त” विरोधाधिकरण “-1/3//2/3-4, से स्थापित किया गया ।

इसी अधिकरण में सदाचार की प्रामाणिकता को लेकर यह निश्चित किया गया कि सदाचार स्मृति से विरुद्ध होने पर प्रमाण नही है ।

तात्पर्य यह कि सदाचार से उसकी ज्ञापक स्मृति का अनुमान किया जाता है और उस स्मृति सेतद्बोधक श्रुति का अनुमान । जब आचार की विरोधिनी स्मृति बैठी है तो उससे वह बाधित हो जायेगा । इसी प्रकार स्मृति भी स्वतः धर्म में प्रमाण नही है अपितु वेदमूलकत्वेन ही प्रमाण है । स्मृति से श्रुति का अनुमान किया जाता है । जब स्मृति विरोधिनी श्रुति प्रत्यक्ष उपलब्ध है तो उससे स्मृति बाधित हो जायेगी –” विरोधे त्वनुपेक्षं स्यादसति ह्यनुमानम् “–पूर्वमीमांसा,1/3/2/3, सदाचार से स्मृति और स्मृति से श्रुति का अनुमान होता है । इन तीनों में श्रुति से स्मृति और स्मृति से सदाचार रूपी प्रमाण दुर्बल है । निष्कर्ष यह कि स्मृति या वेदविरुद्ध आचार प्रमाण नही है । अब हम यह देखेंगे कि विवाह में जो फेरे पड़ते हैं –4 या 7, इनमें किसको स्मृति या वेद का समर्थन प्राप्त है और कौन इनसे विरुद्ध है ? यहां यह बात ध्यान में रखनी है कि स्मृति का अर्थ केवल मनु या याज्ञवल्क्य आदि महर्षियों से प्रणीत स्मृतियां ही नहीं अपितु सम्पूर्ण धर्मशास्त्र है — ” श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः “–2/10, धर्मशास्त्र के अन्तर्गत स्मृतियां ,पुराण,इतिहास,कल्पसूत्र आदि आते हैं –यह मीमांसकों का सिद्धान्त है | अतः यह ठीक है । तो मैं उस व्यक्ति से यही कहूंगा कि सदाचार तभी तक प्रमाण है जब तक उसके विरुद्ध कोई स्मृति या श्रुति न हो ।

ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री.उमरेठ ||